November 06, 2015

विरोध का रिश्ता

तुम सोंचते हो                                                          
सुहाग के लिए होता है श्रृंगार
फिर क्यों मन मगन होता है किसी का
पनघट पर
गैलारे की प्यास बुझाकर
अपने हीं मन की उमंग, तरंग है ये
जो प्यार की छांव में सजता है
मदभरे नयनों से सराहा जाकर,
या उस उत्साह या उम्मीद में भी
सज रहा होता है श्रृंगार कहीं
सोचने पे लगेगा पाप है ये
तमाम औरतों की नजर में भी
पर मगन होती है औरतें
आह्लादित होता है मन उनका
पाप करके भी कभी
पाटना मुश्किल है
एक बहुत बड़ा अंतर
उसके अपने हीं दिल का
अंतर ब्याहता और जोगन का।
                                                - अपर्णा

August 27, 2015

तेरा इंसान होना


तेरा इंसान होना  
बर्दाश्त नहीं होता मुझे 
जब इंसानो से दीखते हो तुम  
मेरे ही हो
एहसास नहीं होता मुझे
आत्मविश्वाश गुम हो जाता  है  
आत्मा भी नहीं होती 
अंधरे में जलेंगे चिराग,
आशा भी नहीं होती
मुझमे भी है कुछ आग
एहसास नहीं होता मुझे
जब इंसानो से  दीखते हो तुम 
तुम, तुम हीं  हो 
विश्वाश नहीं होता मुझे

- अपर्णा

August 18, 2015

एक छोटी सी असलियत

एक इंसान की हक़ीकत क्या है 
जिंदगी से उसे निस्बत क्या है  
दिल में जो हो कह नहीं पाये 
खुद का सच भी सह नहीं पाये 
पी न सके निश्छल प्याले से 
छल का दंश भी सह नहीं पाये 
हँस नहीं पाये रो नहीं पाये 
अपने सपने बो नहीं पाये 
सच समझें ये धैर्य न होता 
झूठों से भी भाग न पाये  
टकराये जब ईमान से अपने 
खुद को ही वो समझ न पाये 
बढ़ नहीं पाये रुक नहीं पाये 
फिर से नए उसूल बनाये 
एक चमन रौशन करने को 
बढे, असंख्यक दीप बुझाए 
है एक अमीट अँधेरा आगे 
समझ न पाये, संभल न पाये 
अंधेरो को दूर भागकर  
अंधेरों में घिर-घिर जाए 
- अपर्णा

March 25, 2015

शक्‍तिमयी ललनाएँ

हम निसर्ग की सर्वश्रेष्ठ कृति शक्‍तिमयी ललनाएँ प्रतिभा प्रज्ञा सुंदरता की गढ़ी हुई रचनाएं वसुधा की अस्मिता समेटे अम्बर का असीम आनन हवन कुण्ड के लपटों जैसी प्रज्वलित पुनीत पावन कभी सती अनुव्रता अनुगामिनी या तूफानों की गति से द्रुततर कभी नाशिनी चण्डी ज्वाला या शुभ्र शबनम सी शीतल क्षमा दया तप त्याग मनोबल की साकार प्रतिमायें आँखों में छवि इन्द्रधनुष की सात समंदर आंचल में विविध रूप की विविध कान्ति है सातों स्वर है पायल में व्यथाओं को भूलने हेतु हम कादम्बिनी नहीं मांगती उल्लास के स्पंदन हेतु लालसा का तांडव नहीं चाहती खुद बनकर अप्सरा वारांगना या गृहलक्ष्मी रमणी रंजना अंधेरों का दीपक बनने को मोहक पर कच्चे रंगों से खुद को हम बहलायें और सुनो हे मानव जीवन हम वात्सल्यमयी जननी बन पिला अमिय सीने से तुझको बना स्नेह शक्ति से पूरित चाहूँ तेरी रजायें हम निसर्ग की सर्वश्रेष्ठ कृति शक्‍तिमयी ललनाएँ |
- अपर्णा

January 23, 2015

फर्क क्या पड़ता है

जिंदगी में मुश्किलों का,
सामना होना हीं था
ख्वाब हम चाहें न चाहें,
बावरा होना हीं था,
बेबसी ने हमको मारा
फर्क क्या पड़ता है जब
अईयाशिओं से भी हमें
बर्बाद तो होना हीं था
मगरूर भी होते अगर
लाचार भी होना ही था
फर्क क्या पड़ता है जब
कहीं कभी, किसी मोड़ पर
किसी दर पे तो झुकना हीं था
नया आसमां ढूंढना हीं था
नयी उड़ान भरनी हीं थी
फर्क क्या पड़ता है जब
कोई अनकहा दर्द महसूस कर
नया जन्म तो लेना हीं था |

- अपर्णा