March 19, 2016

किताबों के पन्नों से : झगड़ा

वरदासुंदरी जानती थीं की परेश को लोक-व्यवहार का ज्ञान बिलकुल नहीं है, दुनिया में किस बात से क्या सुविधा या असुविधा होती है इस बारे में वह कभी कुछ सोचते ही नहीं, सहसा एक-न-एक काम कर बैठते हैं |  उसके बाद कोई चाहे गुस्सा करे, बिगड़े या रोये-धोये, वह एकदम पत्थर की मूर्ति बने बैठे रहते हैं | ऐसे आदमी से भला कौन निबाह सकता है ?  जरुरत होने पर जिसके साथ झगड़ा भी न किया जा सके उसके साथ ग्रिहस्थी कौन स्त्री चला सकती है |  

Book : गोरा , Author :  रबीन्द्रनाथ  टैगोर 

January 11, 2016

उत्थान

कई बरस हो गये
चार पाँच या उससे भी ज्यादा
तुम्हारा नाम मिट नहीं सकता 
बस कुछ कुछ धुंधला सा गया था
मेरे वजूद में
चलना सीखी थी मैं
तुम्हारी हीं रौशनी ढुंढते हुए
पर राहें मुड़ती रहीं
कहां निकल गई मैं 
दिशा का भान भी नही रहा 
औऱ फिर जब सामना हुआ 
वहीं बवंडर महसूस कर रही हूं मैं
शायद एक तरंग हो तुम
अद्वैत अनंत एकाकी
या एक आवाज हो तुम 
उत्थान का

January 10, 2016

उन आँखों में

उन आँखों में जो कुछ भी था
परे था वो
किसी भी यथार्थवादी या स्वप्नदर्शी की
मर्यादाओं से
कलम की ताकत कम पड़ जाती थी
जुबान देते हुए उन रंगों को
कहते थे हर युद्ध अौर विराम
है केंद्रित उससे
पर वह उन सब से परे था
निर्विकार , एकाकी
हर कहीं खोजता हुअा
अपना हीं सच