January 11, 2016

उत्थान

कई बरस हो गये
चार पाँच या उससे भी ज्यादा
तुम्हारा नाम मिट नहीं सकता 
बस कुछ कुछ धुंधला सा गया था
मेरे वजूद में
चलना सीखी थी मैं
तुम्हारी हीं रौशनी ढुंढते हुए
पर राहें मुड़ती रहीं
कहां निकल गई मैं 
दिशा का भान भी नही रहा 
औऱ फिर जब सामना हुआ 
वहीं बवंडर महसूस कर रही हूं मैं
शायद एक तरंग हो तुम
अद्वैत अनंत एकाकी
या एक आवाज हो तुम 
उत्थान का

2 comments:

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