July 17, 2014

मुक्ता



जन्म से अभिशप्त हूँ मैं
जीवन से संतप्त हूँ मैं
समाज की हीं उपज हूँ
पर समाज से परित्यक्त हूँ मैं

मातृरूप का स्निग्ध स्नेह जब
संज्ञाशून्‍य नहीं कर पाया
भार्या रूप से पशुता को जब 
भोजन नहीं मिल पाया
किया मुझे निर्वासित जग से
पत्नीत्व से मातृत्व से
बना दिया वार-वनितायें
भागे कठोर कर्तव्य से

मुझे देख करुणा को भी
अब करुणा नहीं आती है
चीरहरण के चीत्कारों से
धरती फट भी नहीं पाती है
भुला हृदय के हुंकारों को
भूपालों के नगर सजाती हूँ
फूलों से चरणों से मैं
तन्मयता का लास दिखाती हूँ

पशुता को मदिरा मे डुबोकर
सारा विष पी जाती हूँ
पर जब जलकर विष में मैं
एकाकी हो जाती हूँ
मेरे अंत को कंधा देने तुम,
क्यों लौट नहीं पाते हो?
मैं हूँ बेटी या बहन तुम्हारी
क्यों सोच नहीं पाते हो? 
                                                     - अपर्णा

6 comments:

  1. Umda aur sarahniya!! Keep it up Aparna!!

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  2. Itna sundar hindi shabd sirf purane lekhak ke kitabon mein hi milta hai. bahut achha likha hua hai...:)

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  3. Hridayvidarak stri charitra ka;
    Aapne aisa warnan kiya hai;
    Chaudi chhati karke chalane wale;
    Purush ka hriday bhi bahut sankuchit hua hai;
    Jhuki sharam se meri nigahe;
    Aur bahi aakhon se ashrudhara;
    Khilne wali Kali ke Mann ne;
    Rokak puchha ki kaisa ye samaj hai hamara;
    Parivartan ki chahat ab;
    Mere Mann me bhi aayi hai;
    Kyoki Naari ko uske adhikaar;
    Dilane ki baari ab aayi hai;

    Kyoki Naari ko uske adhikaar;
    Dilane ki baari ab aayi hai.

    Mayank/24.08.2014/21:03Hrs.

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  5. है वार तेरा हुँकार भरा
    ललना अब भी सबला है
    मत खींचे तू तार राग के
    तेरी जात में हाहाकार भरा

    वीर बहूटी सावन सी हूँ
    तेरी शरण मन्द्र में जीती हूँ
    भोग समझ ना मानव मुझको
    तार नहीं त्रिशूल भी हूँ

    जीवन का सन्तृप्त घोल मैं
    घट अमृत मधु मन्थन हूँ
    बहने दो निर्मल दरिया को
    आग नहीं दावानल हूँ मैं
    ______________राजेश

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  6. good to see some rhyme creeping in

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