November 06, 2015

विरोध का रिश्ता

तुम सोंचते हो                                                          
सुहाग के लिए होता है श्रृंगार
फिर क्यों मन मगन होता है किसी का
पनघट पर
गैलारे की प्यास बुझाकर
अपने हीं मन की उमंग, तरंग है ये
जो प्यार की छांव में सजता है
मदभरे नयनों से सराहा जाकर,
या उस उत्साह या उम्मीद में भी
सज रहा होता है श्रृंगार कहीं
सोचने पे लगेगा पाप है ये
तमाम औरतों की नजर में भी
पर मगन होती है औरतें
आह्लादित होता है मन उनका
पाप करके भी कभी
पाटना मुश्किल है
एक बहुत बड़ा अंतर
उसके अपने हीं दिल का
अंतर ब्याहता और जोगन का।
                                                - अपर्णा

4 comments:

  1. Arpna ji

    To add your hindi blog at webkosh log this url http://webkosh.in

    ReplyDelete
  2. very nice... :) bhot acha likha hai :)

    ReplyDelete
  3. It was very useful for me. Keep sharing such ideas in the future as well. This was actually what I was looking for, and I am glad to came here! Thanks for sharing the such information with us.

    ReplyDelete