April 13, 2014

अंश मुझमें


मन वीणा के प्राण पूजित
तार कैसे तोड़ दूँ मैं
राह कैसे मोड़ लूँ मैं..?

वो मिट्टी जिसने जन्म दिया,
वो अंबर जिसने प्राण दिया,
वो सब यादें, वादे, राहें,
जिसने जीने का ज्ञान दिया,
इन सब से मुख मोड़ूं कैसे ?
इन सब को मैं छोड़ूं कैसे ?

उन काँटों का भी ऋण है मुझपर,
कलियों, पंखुरियों, से ज़्यादा,
जिस सब ने सिखलाया मुझको,
फंसकर, गिरकर, फिर उठ जाना...

उन भावों को भूलूं कैसे..?
जिसने मेरा सत्कार किया,
उन द्वारों को बिसरूं कैसे..?
जिसने  मुझको दुत्कार दिया,

उन चोटों को दफ़नाऊ कहाँ..?
जिसने बस नही प्रहार किया,
आया जब था तब बेढब था,
चोटों ने ही आकर दिया...

ये सब आये और चले गये..
लेने से ज़्यादा ही देकर,
मैं खरा दोराहे पर सोचूं,
सबका ऋण कंधो पर लेकर..

किससे भागूं और कहाँ चलूं..?
क्या-क्या बिसरूं किस राह बढ़ूं..?
जिस सब से अबतक भाग रहा,
वो सब तो मेरे अंदर है..
मुझमें मुझ इतने रमे हुए,
इनसे ही तो ये जीवन है...


                                                   -अपर्णा
                            


No comments:

Post a Comment