किसी पत्थर पे किताब लिखता हूँ
अपनी जिंदगी का हिसाब लिखता हूँ
तुम्हें सही न भी लगे तो क्या....
अपने दिल के सवाल लिखता हूँ
सवालों की उलझन में उलझ मैं न जाऊँ
जवाबों को ढूंढूं और खुद खो न जाऊँ
बनाने को जिंदगी पे अपना भरोसा
टुकड़े जिंदगी के चुनकर जवाब लिखता हूँ
यादों के साये से नम हों न आँखें
भावों की आंधी में भटकूँ न राहें
बचाने को दिल का नाजुक सा कोना,
स्याही से लफ्जों के हिज़ाब लिखता हूँ
भटकूँ जो राहें इशारे भी दोगी,
मझधार मे दे, किनारे न दोगी
एक रहगुजर तो चाहिये गुजारे को,
भावों के इंटों से सपनों के मकान लिखता हूँ
तेरी आँखों से रौशन ये जहाँ है,
तेरे नूर से हीं खुबसूरत फ़िज़ा है,
तेरे नशे में हूँ मदहोश इस कदर,
हर लफ्ज में तेरे जल्वों के जलाल लिखता हूँ
बेवफा मुझसे होकर चली जाओगी
वफा मुझसे बेहतर नहीं पाओगी
जो अपना लिखूं तो क्या हीं लिखूं मैं...
खुद के साये में तेरा हीं शवाब लिखता हूँ |
- अपर्णा